उत्तराखंड में परिसीमन को लेकर बढ़ी चर्चाएं, पहाड़ी क्षेत्रों में बढ़ती खाई, क्या होगा समाधान?
- ANH News
- 12 अप्रैल
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उत्तराखंड में परिसीमन को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं। दक्षिण भारत के पांच राज्यों के मुख्यमंत्रियों की गोलबंदी के बाद अब इस मुद्दे पर उत्तराखंड में भी हलचल मच गई है। हालांकि, परिसीमन आयोग का गठन अभी तक नहीं हुआ है और जनगणना के बाद ही यह प्रक्रिया शुरू होगी, लेकिन इसके बावजूद राज्य में इस विषय को लेकर चिंताएं बढ़ने लगी हैं। खासकर, राज्य के पर्वतीय क्षेत्र के राजनीतिज्ञों के लिए यह मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण बन चुका है।
पलायन की समस्या और उसकी चिंताएं
पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में पलायन की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। 2018 में पलायन आयोग द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार, राज्य से अब तक पांच लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं। इनमें से तीन लाख से अधिक लोग केवल अस्थायी तौर पर अपने घर छोड़ चुके हैं, जो मुख्य रूप से काम की तलाश या बुनियादी सुविधाओं के अभाव में पलायन कर गए थे।
पलायन को रोकने और रिवर्स पलायन को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा कई योजनाओं की शुरुआत की गई है। गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी ने ‘मेरा वोट- मेरा गांव’ अभियान के जरिए अस्थायी तौर पर पलायन कर चुके लोगों को अपने गांवों में वोट बनाने के लिए प्रेरित किया है। हालांकि, जानकारों के अनुसार, इन उपायों से पहाड़ और मैदान के बीच बढ़ती जनसंख्या की खाई को पाटा नहीं जा सका है।
कनेक्टिविटी और आजीविका के साधन: एक नई उम्मीद
राज्य सरकार कनेक्टिविटी और आजीविका के साधनों के विकास से पर्वतीय क्षेत्रों में आर्थिक सुधार की उम्मीद कर रही है। चारधाम ऑलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल परियोजना और हवाई कनेक्टिविटी के विस्तार से पर्वतीय क्षेत्रों में जनजीवन को आसान बनाने की कोशिश की जा रही है। इसके अलावा, सोलर ऊर्जा, होम स्टे और उद्यानिकी से जुड़ी योजनाओं के माध्यम से रिवर्स पलायन को बढ़ावा देने की कोशिशें की जा रही हैं।
मतदाता संख्या में बदलाव: पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों का तुलनात्मक विश्लेषण
उत्तराखंड में 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव के दौरान पर्वतीय और मैदानी जिलों में मतदाताओं की संख्या में केवल 5.4 प्रतिशत का अंतर था। उस समय चार मैदानी जिलों में कुल मतदाताओं का 52.7 प्रतिशत और नौ पर्वतीय जिलों में 47.3 प्रतिशत मतदाता थे। लेकिन पिछले दो दशकों में यह अंतर बढ़ता चला गया है।
2022 तक, जहां मैदानी जिलों में मतदाताओं की संख्या 60.6 प्रतिशत तक पहुंच गई, वहीं पर्वतीय जिलों में यह घटकर 39.4 प्रतिशत हो गया। इस अवधि में मैदानी जिलों में 72 प्रतिशत मतदाता वृद्धि हुई, जबकि पर्वतीय जिलों में यह वृद्धि केवल 21 प्रतिशत रही। यह वृद्धि दर पहाड़ी क्षेत्रों के लिए चिंता का विषय बन गई है, क्योंकि इससे राज्य के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में असंतुलन पैदा हो सकता है।
परिसीमन: एक आवश्यकता या विकल्प?
अब यह सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को संरक्षित रखने के लिए परिसीमन की आवश्यकता है। सामाजिक कार्यकर्ता और विश्लेषक अनूप नौटियाल का कहना है कि पहाड़ और मैदान के बीच बढ़ती खाई को देखते हुए केवल परिसीमन ही इसका समाधान हो सकता है।
वहीं, गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी का मानना है कि इस समय जनगणना और विकास के उपायों के बाद ही परिसीमन पर विचार किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या बढ़ाने के लिए विकास, रोजगार और आजीविका के साधनों का विस्तार जरूरी है।
चिंताओं के समाधान के लिए बढ़ती जिम्मेदारी
यह समस्या सिर्फ उत्तराखंड की नहीं, बल्कि समूचे देश के ग्रामीण क्षेत्रों की है। पर्यावरणविद और सामाजिक चिंतक अनिल जोशी का कहना है कि गांवों से आबादी के पलायन की समस्या को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। पहाड़ी राज्य की अवधारणा को जिंदा रखने के लिए पहाड़ों के विकास और यहां के लोगों के लिए रोजगार के अवसरों का निर्माण अत्यंत आवश्यक है।
उत्तराखंड में परिसीमन की आवश्यकता और पलायन की समस्या से निपटने के लिए सरकारी योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है, ताकि राज्य के पहाड़ी क्षेत्र को राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से स्थिर रखा जा सके।